2 राजाओं 17:6-28
6 होशे के नौवें वर्ष में अश्शूर के राजा ने शोमरोन को ले लिया, और इस्राएलियों को अश्शूर में ले जाकर, हलह में और गोजान की नदी हाबोर के पास और मादियों के नगरों में बसाया।
7 इसका यह कारण है, कि यद्यपि इस्राएलियों का परमेश्वर यहोवा उनको मिस्र के राजा फ़िरौन के हाथ से छुड़ाकर मिस्र देश से निकाल लाया था, तो भी उन्होंने उसके विरुद्ध पाप किया*, और पराये देवताओं का भय माना,
8 और जिन जातियों को यहोवा ने इस्राएलियों के सामने से देश से निकाला था, उनकी रीति पर, और अपने राजाओं की चलाई हुई रीतियों पर चलते थे।
9 इस्राएलियों ने कपट करके अपने परमेश्वर यहोवा के विरुद्ध अनुचित काम किए, अर्थात् पहरुओं के गुम्मट से लेकर गढ़वाले नगर तक अपनी सारी बस्तियों में ऊँचे स्थान बना लिए;
10 और सब ऊँची पहाड़ियों पर, और सब हरे वृक्षों के नीचे लाठें और अशेरा खड़े कर लिए।
11 ऐसे ऊँचे स्थानों में उन जातियों के समान जिनको यहोवा ने उनके सामने से निकाल दिया था, धूप जलाया*, और यहोवा को क्रोध दिलाने के योग्य बुरे काम किए,
12 और मूरतों की उपासना की, जिसके विषय यहोवा ने उनसे कहा था, “तुम यह काम न करना।”
13 तो भी यहोवा ने सब भविष्यद्वक्ताओं और सब दर्शियों के द्वारा इस्राएल और यहूदा को यह कहकर चिताया* था, “अपनी बुरी चाल छोड़कर उस सारी व्यवस्था के अनुसार जो मैंने तुम्हारे पुरखाओं को दी थी, और अपने दास भविष्यद्वक्ताओं के हाथ तुम्हारे पास पहुँचाई है, मेरी आज्ञाओं और विधियों को माना करो।”
14 परन्तु उन्होंने न माना, वरन् अपने उन पुरखाओं के समान, जिन्होंने अपने परमेश्वर यहोवा का विश्वास न किया था, वे भी हठीले बन गए।
15 वे उसकी विधियों और अपने पुरखाओं के साथ उसकी वाचा, और जो चितौनियाँ उसने उन्हें दी थीं, उनको तुच्छ जानकर, निकम्मी बातों के पीछे हो लिए; जिससे वे आप निकम्मे हो गए, और अपने चारों ओर की उन जातियों के पीछे भी हो लिए जिनके विषय यहोवा ने उन्हें आज्ञा दी थी कि उनके से काम न करना।
16 वरन् उन्होंने अपने परमेश्वर यहोवा की सब आज्ञाओं को त्याग दिया, और दो बछड़ों की मूरतें ढालकर बनाईं, और अशेरा भी बनाई; और आकाश के सारे गणों को दण्डवत् की, और बाल की उपासना की।
17 उन्होंने अपने बेटे-बेटियों को आग में होम करके चढ़ाया; और भावी कहनेवालों से पूछने, और टोना करने लगे; और जो यहोवा की दृष्टि में बुरा था जिससे वह क्रोधित भी होता है, उसके करने को अपनी इच्छा से बिक गए।
18 इस कारण यहोवा इस्राएल से अति क्रोधित हुआ, और उन्हें अपने सामने से दूर कर दिया; यहूदा का गोत्र छोड़ और कोई बचा न रहा।
19 यहूदा ने भी अपने परमेश्वर यहोवा की आज्ञाएँ न मानीं, वरन् जो विधियाँ इस्राएल ने चलाई थीं, उन पर चलने लगे।
20 तब यहोवा ने इस्राएल की सारी सन्तान को छोड़कर, उनको दुःख दिया, और लूटनेवालों के हाथ कर दिया, और अन्त में उन्हें अपने सामने से निकाल दिया।
21 जब उसने इस्राएल को दाऊद के घराने के हाथ से छीन लिया, तो उन्होंने नबात के पुत्र यारोबाम को अपना राजा बनाया; और यारोबाम ने इस्राएल को यहोवा के पीछे चलने से दूर खींचकर उनसे बड़ा पाप कराया।
22 अतः जैसे पाप यारोबाम ने किए थे, वैसे ही पाप इस्राएली भी करते रहे, और उनसे अलग न हुए।
23 अन्त में यहोवा ने इस्राएल को अपने सामने से दूर कर दिया, जैसे कि उसने अपने सब दास भविष्यद्वक्ताओं के द्वारा कहा था। इस प्रकार इस्राएल अपने देश से निकालकर अश्शूर को पहुँचाया गया, जहाँ वह आज के दिन तक रहता है।
24 अश्शूर के राजा ने बाबेल, कूता, अव्वा, हमात और सपर्वैम नगरों से लोगों को लाकर, इस्राएलियों के स्थान पर शोमरोन के नगरों में बसाया; सो वे शोमरोन के अधिकारी होकर उसके नगरों में रहने लगे।
25 जब वे वहाँ पहले-पहले रहने लगे, तब यहोवा का भय न मानते थे, इस कारण यहोवा ने उनके बीच सिंह भेजे, जो उनको मार डालने लगे।
26 इस कारण उन्होंने अश्शूर के राजा के पास कहला भेजा कि जो जातियाँ तूने उनके देशों से निकालकर शोमरोन के नगरों में बसा दी हैं, वे उस देश के देवता की रीति नहीं जानतीं, इससे उसने उसके मध्य सिंह भेजे हैं जो उनको इसलिए मार डालते हैं कि वे उस देश के देवता की रीति नहीं जानते।
27 तब अश्शूर के राजा ने आज्ञा दी, “जिन याजकों को तुम उस देश से ले आए, उनमें से एक को वहाँ पहुँचा दो; और वह वहाँ जाकर रहे, और वह उनको उस देश के देवता की रीति सिखाए।”
28 तब जो याजक शोमरोन से निकाले गए थे, उनमें से एक जाकर बेतेल में रहने लगा, और उनको सिखाने लगा कि यहोवा का भय किस रीति से मानना चाहिये।
कर्मेल पर्वत पर आग के माध्यम से परमेश्वर के प्रकट होने के बावजूद, परमेश्वर के लोग मूर्तियों की पूजा करते रहे। उत्तर के सब राजाओं ने यहोवा की दृष्टि में बुरा किया। अंततः परमेश्वर ने शत्रुओं को उत्तरी राज्य पर आक्रमण करने की अनुमति दी । अश्शूर के राजा ने पूरी आबादी को निर्वासित कर दिया, परन्तु बाद में उसने कई राष्ट्रों के लोगों के साथ इस क्षेत्र को फिर से बसाया। परमेश्वर सभी लोगों को आशीष देने के अपने उद्देश्य को आगे बढ़ा रहे थे।
हमारी संस्कृति में बहुत से लोगों के लिए, पाप एक ऐसा शब्द बन गया है जो थोड़ी-सी लिप्त चीजों का वर्णन करता है जो पूरी तरह से वैध हैं, जैसे कि बहुत अधिक चॉकलेट खाना ।
रविवार की सुबह घर पर एक पैंतीस वर्षीय पति और पिता की कल्पना करें। चलो उसे सोनू कहते हैं। उसने रविवार समाचार पत्र पढ़ना समाप्त कर लिया है, और वह फैसला करता है कि वह अपने तहखाने की सफाई के उस अक्सर स्थगित कार्य को पूरा करेगा। जैसे ही वह बक्सों को छाँटता है, सोनू को एक पुरानी पारिवारिक बाइबल मिलती है जो उसकी दादी की थी। उसे अपने अंदर कुछ महसूस होता है कि उसे इस बाइबल को फेंकना नहीं चाहिए; आखिरकार यह बहुत पुरानी है, और कई पन्नों पर उसकी दादी की नाजुक लिखावट में संछिप्त टिप्पड़ियाँ हैं। वह उसे खोलता है और पढ़ता है कि “मसीह यीशु पापियों का उद्धार करने के लिये जगत में आया” (1 तीमुथियुस 1:15)|
हालांकि यह सोनू को विचित्र लगता है। यीशु अति भोगी लोगों को बचाने आएं! सोनू को जलेबी का आनंद लेना पसंद है और वो जानता है कि उसे शायद नहीं खाना चाहिए, परन्तु वह व्यायाम करता है और आम तौर पर अच्छे स्वास्थ्य में रहता है, इसलिए उसे किस्से बचने की आवश्यकता है? वह कुछ पन्नों को पलटता है और पढ़ता है कि परमेश्वर उन लोगों से क्रोधित थे जिन्होंने पाप किया था (इब्रानियों 3:10) | सोनू को यह बात बिलकुल समझ में नहीं आयी। उसकी समझ के अनुसार, पाप क्यों परमेश्वर को क्रोधित करेगा? यह कैसा परमेश्वर है जो जरा सा भी सुख-भोग करने वाले लोगों पर क्रोध करता है?
इसलिए सोनू बाइबल को बंद कर देता है, खुद को यकीन दिलाते हुए कि उसने रविवार की सुबह घर पर बिताने का सही चुनाव किया है। वह अपनी पत्नी और अपने बच्चों से प्रेम करता है, और वह यह नहीं समझ पाता कि उसकी दादी ने बाइबल को इतनी अद्भुत पुस्तक क्यों समझा।
पाप को हमेशा ऐसे तरीकों से पुनर्परिभाषित किया जाता है जिससे ऐसा लगता है कि यह कोई बड़ी बात नहीं है। परन्तु पाप कोई हानिरहित सुख नहीं है। पाप परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करना है, और जब आप देखते हैं कि पाप आपकी सबसे बड़ी समस्या है, आप अपने जीवन में यीशु की आवश्यकता को जानेंगे।
भक्ति की प्राथमिकता
पाप एक विनाशकारी शक्ति है। यह एक जीवन, एक परिवार, या एक गिरजाघर को बर्बाद कर सकता है। 2 राजाओं 17 हमें बताता है कि कैसे पाप ने एक राष्ट्र को नष्ट कर दिया। सुलैमान की मृत्यु के बाद, उत्तर में दस गोत्रों ने दक्षिण में दो गोत्रों से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की, खुद को उस आशीर्वाद से अलग कर लिया जिसे परमेश्वर ने दाऊद के शाही वंश को देने का वादा किया था। उत्तर में उन्नीस राजा थे, और उनमें से हर एक ने यहोवा की दृष्टि में बुरा किया। लगभग दो सौ वर्षों के बाद, परमेश्वर ने शत्रुओं को उत्तरी राज्य पर आक्रमण करने की अनुमति दी। लोगों को निर्वासित कर दिया गया, और पूरा क्षेत्र एक प्रकार की बंजर भूमि बन गया ।
दस उत्तरी गोत्रों के पहले राजा ने निश्चय किया था कि उसके लोग परमेश्वर की आराधना करने के लिए यरूशलेम नहीं जाएंगे। इसलिए उसने दान और बेतेल में अपना खुद का धर्म स्थापित किया, जहाँ उसने सोने के दो बछड़े स्थापित किए।
इस मानव-निर्मित धर्म ने एक ऐसी संस्कृति को जन्म दिया जहां अमीर ऐश्वर्य में रहते थे और गरीबों के प्रति पूर्ण उपेक्षा दिखाते थे। सड़कें हिंसा से भरी हुई थीं, और परमेश्वर के लोग अवांछित बच्चों को आग में जलाने के लिए देने की अश्लील प्रथा में लिप्त थे।
और फिर भी परमेश्वर ने अपने लोगों के खिलाफ जो पहला आरोप लगाया वह हिंसा, हत्या, लालच, और यहाँ तक कि बच्चों के प्रति क्रूरता भी नहीं थी । परमेश्वर की पहली शिकायत यह थी कि उसके लोगों ने दूसरे देवताओं की आराधना की थी (2 राजाओं 17:7)।
पहली चार आज्ञाएँ स्वयं परमेश्वर के बारे में हैं: “तू मुझे छोड़ दूसरों को ईश्वर करके न मानना । तू अपने लिये कोई मूर्ति खोदकर न बनाना…. तू अपने परमेश्वर का नाम व्यर्थ न लेना….तू विश्रामदिन को पवित्र मानने के लिये स्मरण रखना” (निर्गमन 20:3-8)। हमारी पहली बुलाहट ईश्वर- केन्द्रित जीवन के लिए है।
बाइबल इसे “भक्ति” कहती है (उदाहरण 1 तीमुथियुस 4:7), और इस प्राथमिकता की पुष्टि यीशु की शिक्षा से होती है। सबसे बड़ी आज्ञा के बारे में पूछे जाने पर, यीशु ने उत्तर दिया “तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख” (मत्ती 22:37)।
भक्ति धार्मिकता की ओर ले जाती है।
पहली चार आज्ञाओं में हमें भक्ति की ओर बुलाने के बाद, परमेश्वर हमें दूसरों के प्रति धर्ममय होकर सम्बन्ध रखने के लिए बुलाते हैं. “तू अपने पिता और अपनी माता का आदर करना… तू खून न करना । तू व्यभिचार न करना | तू चोरी न करना । तू झूठी साक्षी न देना… लालच न करना” (निर्गमन 20:12-17)।
परमेश्वर हमें अन्य लोगों के साथ हमारे संबंधों के द्वारा उनके प्रेम को दर्शाने के लिए बुलाते हैं। मसीह ने इसकी पुष्टि की जब उन्होंने कहा कि दूसरी आज्ञा यह है कि “तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख” (मत्ती 22:39)।
धार्मिकता भक्ति की नींव पर टिकी है, इसलिए जब लोग परमेश्वर को अस्वीकार करते हैं, तो धार्मिकता उनकी पकड़ से बाहर हो जाती है। जब एक राष्ट्र जीवित परमेश्वर से दूर हो जाता है, तो इसका परिणाम नैतिक भ्रम और पाप और बुराई की खुली छूट होगा।
उत्तरी राज्य में, पाप लोगों द्वारा परमेश्वर को अस्वीकार करने के साथ शुरू हुआ, और यह उनके द्वारा अपने बच्चों को आग में डालने के साथ समाप्त हुआ। उनके द्वारा बाइबल की नैतिकता को खो देने का कारण यह है कि उन्होंने बाइबल के परमेश्वर को अस्वीकार कर दिया। आपके पास भक्ति के बिना धार्मिकता नहीं हो सकती।
परमेश्वर के बिना जीवन
हमारे मित्र सोनू, जो रविवार की सुबह अपने तहखाने की सफाई कर रहा था, चाहता है कि उसका परिवार धार्मिकता के लाभों का आनंद उठाएं। वह चाहता है कि उसकी शादी सफल रहें, और वह चाहेगा कि उसके साथ व्यापार करने वाले लोग ईमानदार हों और अपनी बात पर कायम रहें। वह उम्मीद करता है कि सरकारी अधिकारी झूठ न बोलें, और वह चाहता है कि उसके बच्चे सुरक्षित रहें।
सोनू धार्मिकता के सभी लाभ चाहता है, परन्तु वह परमेश्वर को नहीं चाहता। और यही उसका पहला और सबसे बड़ा पाप है। सोनू ईश्वर विहीन है। वह एक सफल पारिवारिक व्यक्ति है जो अपना और अपने परिवार का भला चाहता है, परन्तु उसके जीवन में ईश्वर के लिए कोई स्थान नहीं है।
हमारी पहली प्रवृत्ति ईश्वर से प्रेम करने की नहीं है बल्कि उनका विरोध करने की है। उनकी शक्ति हमारी स्वतंत्रता के लिए खतरा प्रतीत होती है और उनकी पवित्रता हमारे अहंकार को ठेस पहुँचाती है। जब तक परमेश्वर हमारे हृदयों को नहीं बदलते, हम हमेशा उनका विरोध करते रहेंगे। पापी मन परमेश्वर का विरोधी होता है (रोमियों 8:7)।
परमेश्वर के क्रोध को भड़काना
परन्तु परमेश्वर अत्यंत सहनशील हैं। वे दो सौ वर्ष तक अपने न्याय को टालते रहे, और भविष्यवक्ताओं को भेजते रहे, ताकि वे अपने लोगों को भक्ति और धार्मिकता की ओर फिर से बुला सके, परन्तु लोग ने नहीं सुना (2 राजाओं 17:14)। इसके बजाय, “उन्होंने यहोवा को क्रोध दिलाने वाले दुष्ट काम किए ( 17:11)।
“भड़काना” शब्द पर ध्यान दें। क्रोध परमेश्वर के स्वभाव में नहीं है। परमेश्वर सदैव पवित्र है, वह सदैव प्रेममय है, परन्तु वह सदैव क्रोधित नहीं होते हैं। प्राचीन देवता स्वभाव से क्रोधित थे, हमेशा क्रोध से सुलगते रहते थे और उन्हें लगातार प्रसन्न करने की आवश्यकता होती थी। उन्हें शान्त करने के लिए चढ़ावा चढ़ाया जाता था, परन्तु उनका क्रोध कभी शान्त नहीं होता था। उनका क्रोध कभी कम नहीं हुआ; यह केवल कायम रहा। परन्तु बाइबल के परमेश्वर पूरी तरह से अलग है: “यहोवा… विलम्ब से कोप करनेवाला और अति करुणामय है” (भजन संहिता 103:8)|
क्रोध करना परमेश्वर का स्वभाव नहीं है, परन्तु उनके क्रोध को भड़काया जा सकता है, और इसके लिए हमें आभारी होना चाहिए। हम उन लोगों की प्रशंसा नहीं करते हैं जो चुपचाप खड़े रहते हैं जब दूसरों के साथ दुर्व्यवहार किया जा रहा हो। हम उस देवता की पूजा कैसे कर सकते हैं जो तब भी शांत था जब लोग अपने बच्चों को आग में डालते थे?
ध्यान दें कि जब परमेश्वर के क्रोध को भड़काया जाता है तो वह क्या करते हैं: “इस कारण यहोवा इस्राएल से अति क्रोधित हुआ, और उन्हें अपने सामने से दूर कर दिया” (2 राजाओं 17:18), प्रतिज्ञा किए हुए देश के संदर्भ में।
बाइबल की कहानी के अंत में हमें बताया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति जो कभी जीवित रहा है वह परमेश्वर के सामने खड़ा होगा, और धर्मभ्रष्ट और अधर्मी परमेश्वर की उपस्थिति से निकाल दिए जाएंगे। वह नरक है— अनंत काल परमेश्वर की आशीष के बाहर ।
परमेश्वर की दया के कार्य में
जब परमेश्वर ने अपने लोगों को अपनी उपस्थिति से हटा दिया, तो जिस देश को परमेश्वर ने आशीष के रूप में देने का वादा किया था वह उजाड़ और निर्जन हो गया । किन्तु अश्शूर के राजा ने अपने पूरे साम्राज्य से लोगों को लाकर वहाँ बसाया और उस क्षेत्र को फिर से आबाद किया (2 राजा 17:24)।
जब ये अप्रवासी उस देश में पहुंचे, तो उन्हें एक अप्रत्याशित समस्या का सामना करना पड़ा। उनमें से कई लोगों पर शेरों ने हमला किया था। जब इस समस्या के बारे में अश्शूर के राजा को पता चला, तो उसने सोचा कि स्थिति से निपटने का सबसे अच्छा तरीका यह होगा कि वहाँ रहने वाले लोगों में से एक याजक को ढूंढा जाए। उसे यह लगा कि एक स्थानीय याजक को पता होगा, जिस भी कारण से परमेश्वर इस समस्या को भेज रहे हैं, उसे शांत करने के लिए क्या करना चाहिए। इसलिए उसने एक यहूदी याजक को इस्राएल में वापस भेजे जाने का आदेश दिया, और “तब जो याजक शोमरोन से निकाले गए थे, उनमें से एक जाकर बेतेल में रहने लगा, और उनको सिखाने लगा कि यहोवा का भय किस रीति से मानना चाहिये” (17:28)।
यहाँ परमेश्वर की दया कार्य में थी। वें लोगों को उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम से उस देश में ले आए, जिसे परमेश्वर ने आशीषित करने का वादा किया था, और उन्होंने वहाँ अपने एक याजक को भेजा, ताकि ये लोग परमेश्वर को जान सकें।
कई देशों के लोगों को सच्चाई का ज्ञान कराया गया, परन्तु समय के साथ वे भ्रमित हो गए क्योंकि वे अपने देवताओं की भी पूजा करते रहे (17:29)। इन लोगों को सामरी कहा जाने लगा।
जब यीशु सामरिया से होकर गए (यूहन्ना 4:4), तो वहाँ उनकी भेंट एक स्त्री से हुई जो भक्तिहीन और अधार्मिक थी। यीशु ने उसे यह कहकर शुरू नहीं किया कि परमेश्वर उसके पापों पर क्रोधित है। उन्होंने परमेश्वर के साथ एक सही संबंध की ओर उसका मार्गदर्शन करते हुए प्रारंभ किया। यीशु ने उससे कहा कि परमेश्वर उन “आराधकों” को ढूँढ़ते है “[जो] पिता की आराधना आत्मा और सच्चाई से करेंगे” (4:23)।
भक्ति की जड़ धार्मिकता है, और उस व्यक्ति से धार्मिकता के बारे में बात करने का कोई मतलब नहीं है जो परमेश्वर को नहीं जानता और उनसे प्रेम नहीं करता। यीशु ने परमेश्वर को जानने के बारे में सामरी स्त्री से बात करना शुरू किया, क्योंकि वहीं से स्थायी परिवर्तन शुरू होता है।
मसीह हमारी ईश्वर हीनता और हमारी अधार्मिकता दोनों से निपटने के लिए मरे | क्रूस पर, पिता ने पुत्र के साथ ऐसा व्यवहार किया मानो यीशु ने एक ईश्वरविहीन जीवन व्यतीत किया हो और मानो वह हर प्रकार की अधार्मिकता के दोषी हो । पिता अपने पुत्र से दूर हो गए, और यीशु परमेश्वर की उपस्थिति से अलग हो गए। इसलिए यीशु ने बड़े शब्द से पुकारकर कहा, “है मेरे परमेश्वर, हे मेरे परमेश्वर, तूने मुझे क्यों छोड़ दिया?” (मैथ्यू 27:46)
मसीह “अधर्मियों के लिये धर्मी ने, पापों के कारण एक बार दुःख उठाया, ताकि हमें परमेश्वर के पास पहुँचाए” (1 पतरस 3:18)। यदि आप विश्वास और पश्चाताप में यीशु के पास आएंगे, तो वह आपको एक भक्तिमय जीवन में ले जायेंगे जो कि धार्मिकता में आपके विकास की शुरुआत होगी।
परमेश्वर हमें भक्ति और धार्मिकता के लिए बुलातें हैं। हमें अपने पूरे दिल से परमेश्वर से प्रेम करना है, और हमें अपने पड़ोसी से खुद के सामान प्रेम करना है। जब हम ईश्वर का ज्ञान खो देते हैं तो नैतिकता कायम नहीं रह सकती। परन्तु जब हम यीशु मसीह के पास आते हैं, तो वह हमें पिता से मेलमिलाप करवाएंगे और धार्मिकता के मार्ग में हमारी अगुवाई करेंगे।
परमेश्वर के वचन के साथ और जुड़ने के लिए इन प्रश्नों का उपयोग करें। उन पर किसी अन्य व्यक्ति के साथ चर्चा करें या उन्हें व्यक्तिगत प्रतिबिंब प्रश्नों के रूप में उपयोग करें।
1. आज की तारीख में पाप के बारे में आपकी समझ क्या रही है?
2. भक्ति और धार्मिकता में क्या अंतर है?
3. आपके लिए कौन सी बड़ी प्राथमिकता है, भक्ति या धार्मिकता का अनुसरण करना ? क्यों?
4. इससे आपको क्या फर्क पड़ता है कि परमेश्वर को क्रोध करने के लिए “उकसाया” गया, या क्रोध परमेश्वर के स्वाभाव का हिस्सा है?
5. यदि आप एक अधिक धर्मी व्यक्ति बनना चाहते हैं, तो यीशु आपकी सहायता कैसे कर सकते हैं?