रोमियों 7:21 – 8:17
रोमियों 7
21 तो मैं यह व्यवस्था पाता हूँ कि जब भलाई करने की इच्छा करता हूँ, तो बुराई मेरे पास आती है।
22 क्योंकि मैं भीतरी मनुष्यत्व से तो परमेश्वर की व्यवस्था से बहुत प्रसन्न रहता हूँ।
23 परन्तु मुझे अपने अंगों में दूसरे प्रकार की व्यवस्था दिखाई पड़ती है, जो मेरी बुद्धि की व्यवस्था से लड़ती है और मुझे पाप की व्यवस्था के बन्धन में डालती है जो मेरे अंगों में है।
24 मैं कैसा अभागा मनुष्य हूँ! मुझे इस मृत्यु की देह से कौन छुड़ाएगा?
25 हमारे प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर का धन्यवाद हो। इसलिए मैं आप बुद्धि से तो परमेश्वर की व्यवस्था का, परन्तु शरीर से पाप की व्यवस्था की सेवा करता हूँ।
रोमियों 8
1 इसलिए अब जो मसीह यीशु में हैं, उन पर दण्ड की आज्ञा नहीं।
2 क्योंकि जीवन की आत्मा की व्यवस्था ने मसीह यीशु में मुझे पाप की, और मृत्यु की व्यवस्था से स्वतंत्र कर दिया।
3 क्योंकि जो काम व्यवस्था शरीर के कारण दुर्बल होकर न कर सकी, उसको परमेश्वर ने किया, अर्थात् अपने ही पुत्र को पापमय शरीर की समानता में, और पाप के बलिदान होने के लिये भेजकर, शरीर में पाप पर दण्ड की आज्ञा दी।
4 इसलिए कि व्यवस्था की विधि हम में जो शरीर के अनुसार नहीं वरन् आत्मा के अनुसार चलते हैं, पूरी की जाए।
5 क्योंकि शारीरिक व्यक्ति शरीर की बातों पर मन लगाते हैं; परन्तु आध्यात्मिक आत्मा की बातों पर मन लगाते हैं।
6 शरीर पर मन लगाना तो मृत्यु है, परन्तु आत्मा पर मन लगाना जीवन और शान्ति है।
7 क्योंकि शरीर पर मन लगाना तो परमेश्वर से बैर रखना है, क्योंकि न तो परमेश्वर की व्यवस्था के अधीन है, और न हो सकता है।
8 और जो शारीरिक दशा में हैं, वे परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकते।
9 परन्तु जब कि परमेश्वर का आत्मा तुम में बसता है, तो तुम शारीरिक दशा में नहीं, परन्तु आत्मिक दशा में हो। यदि किसी में मसीह का आत्मा नहीं तो वह उसका जन नहीं।
10 यदि मसीह तुम में है, तो देह पाप के कारण मरी हुई है; परन्तु आत्मा धार्मिकता के कारण जीवित है।
11 और यदि उसी का आत्मा जिसने यीशु को मरे हुओं में से जिलाया तुम में बसा हुआ है; तो जिस ने मसीह को मरे हुओं में से जिलाया, वह तुम्हारी मरनहार देहों को भी अपने आत्मा के द्वारा जो तुम में बसा हुआ है जिलाएगा।
12 तो हे भाइयों, हम शरीर के कर्जदार नहीं, कि शरीर के अनुसार दिन काटें।
13 क्योंकि यदि तुम शरीर के अनुसार दिन काटोगे, तो मरोगे, यदि आत्मा से देह की क्रियाओं को मारोगे, तो जीवित रहोगे।
14 इसलिए कि जितने लोग परमेश्वर के आत्मा के चलाए चलते हैं, वे ही परमेश्वर के पुत्र हैं।
15 क्योंकि तुम को दासत्व की आत्मा नहीं मिली, कि फिर भयभीत हो परन्तु लेपालकपन की आत्मा मिली है, जिससे हम हे अब्बा, हे पिता कहकर पुकारते हैं।
16 पवित्र आत्मा आप ही हमारी आत्मा के साथ गवाही देता है, कि हम परमेश्वर की सन्तान हैं।
17 और यदि सन्तान हैं, तो वारिस भी, वरन् परमेश्वर के वारिस और मसीह के संगी वारिस हैं, जब हम उसके साथ दुःख उठाए तो उसके साथ महिमा भी पाएँ।
जब आदम और हव्वा ने पहला पाप किया, तो उसके दो दीर्घकालिक परिणाम हुए: पाप उनके विरुद्ध दण्ड लेकर आया, और यह उनके भीतर एक शक्ति बन गया। हमें दोनों से बचाव की आवश्यकता है, और यह सत्र इस बारे में है कि हम पाप की शक्ति पर कैसे विजय प्राप्त कर सकते हैं। हम तीन पात्रों से मिलने जा रहे हैं: शत्रुतापूर्ण, असहाय और आशावादी। यह तय करने का प्रयास करें कि उनमें से आप किससे सबसे अधिक संबंधित महसूस करते हैं। फिर हम देखेंगे कि परमेश्वर उनमें से प्रत्येक से और हमसे क्या कहना चाहते हैं।
कुछ वर्ष बीत चुके थे जब सोनू ने पहली बार किसी दावत में नशे का सेवन किया था। उसने कहा कि वह ऐसा दोबारा नहीं करेगा, परन्तु उसने पाया कि वह इसे रोक नहीं सकता। उसे यह स्वीकार करने में कठिनाई हुई कि वह नशे का आदी हो चुका है, परन्तु उसके दोस्त जानते थे कि यह सच्चाई थी।
फिर एक दिन सोनू को नशे के सामान के साथ पकड़ा गया। पुलिस ने आरोप लगाया और अदालत ने भारी जुर्माना लगाया। जुर्माना भरना था और सोनू के पास पैसे नहीं थे।
बहुत सोचने के बाद सोनू की माँ ने उसकी ओर से जुर्माना भर दिया, परन्तु बाद में वह सोचने लगीं कि क्या उसने सही काम किया है। उसने कहा, “मुझे डर है कि जुर्माना भरकर मैं उसे उसकी आदत जारी रखने में मदद कर रही हूँ।”
वह सही कह रही है। सोनू नशे का आदी है। नशा उसकी ज़िंदगी में एक शक्ति का काम कर रहा है, और उस शक्ति को खत्म किया जाना चाहिए।
यदि सोनू को अपनी लत की शक्ति पर काबू पाना है, तो उसे ना कहने की इच्छा और क्षमता दोनों की आवश्यकता होगी। परन्तु सोनू में ऐसी इच्छा नहीं दिखती। और यदि उसमें इच्छा होती भी, तो क्या उसके पास क्षमता है?
शत्रुतापूर्ण: कोई इच्छा नहीं और कोई क्षमता नहीं
रोमियों 8 में पौलुस एक ऐसे व्यक्ति का वर्णन करता है जो परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण है: “शरीर पर मन लगाना तो परमेश्वर से बैर रखना है, क्योंकि न तो परमेश्वर की व्यवस्था के अधीन है और न हो सकता है” (रोमियों 8:7)। शत्रु में न तो परमेश्वर के नियम का पालन करने की इच्छा होती है, न ही क्षमता।
एक समय में, पौलुस स्वयं शत्रुतापूर्ण था। उसने मसीही विश्वासियों पर बहुत ज़्यादा अत्याचार किए थे, “प्रभु के चेलों को धमकाने और घात करने की धुन में था” (प्रेरितों 9:1)। यह शत्रुतापूर्ण है!
परन्तु जब पौलुस दमिश्क के मार्ग पर जा रहा था, तो पुनर्जीवित प्रभु यीशु मसीह उसके सामने प्रकट हुए और कहा,।, “तू मुझे क्यों सताता है?” (प्रेरितों 9:4)। मसीही विश्वासियों के प्रति पौलुस का उग्र क्रोध वास्तव में मसीह के प्रति उनके हृदय में गहरे क्रोध का प्रतिबिम्ब था।
आज हमारे समाज में शत्रुतापूर्ण लोगों से मिलने के लिए आपको बहुत दूर देखने की ज़रूरत नहीं है। वे परमेश्वर के सार्वजनिक उल्लेख पर क्रोधित हो जाते हैं, और वे इस सुझाव से आहत होते हैं कि एक परमेश्वर है जिसके प्रति हम सभी उत्तरदायी हैं।
जब बात परमेश्वर से जुड़ी बातों की हो तो दयालु और समझदार लोग भी शत्रुतापूर्ण हो सकते हैं। क्या आपने गौर किया है कि जब तक परमेश्वर का नाम नहीं लिया जाता, तब तक बातचीत काफ़ी सभ्य हो सकती है? ऐसा लगता है जैसे कोई बटन दबा दिया गया हो और आत्मा के भीतर एक गहरी शत्रुता उजागर हो गई हो।
असहाय: क्षमता के बिना इच्छा
रोमियों 7 में, हम एक अन्य पात्र से मिलते हैं जिसे हम “असहाय” कहेंगे। असहाय और शत्रुतापूर्ण के बीच बड़ा अंतर यह है कि शत्रुतापूर्ण परमेश्वर के नियम से घृणा करता है, जबकि असहाय उससे प्रेम करता है। वह कहता है, ” मैं भीतरी मनुष्यत्व से तो परमेश्वर की व्यवस्था से बहुत प्रसन्न रहता हूँ।।” (रोमियों 7:22)।
असहाय की समस्या यह है कि वह परमेश्वर के नियम से प्रेम तो करता है, परन्तु उसका पालन नहीं कर पाता। । वह कहता है, ” इच्छा तो मुझ में है, परन्तु भले काम मुझ से बन नहीं पड़ते” (7:18)।
असहाय व्यक्ति अपने आप में एक रहस्य है। वह वो नहीं करता जो वह करना चाहता है, और वो वही करता है जो उसने कभी नहीं चाहा था (7:15)। इस शक्ति की कमी के कारण वो बहुत दुखी महसूस करता है। वो कहता है, “मैं कितना अभागा आदमी हूँ!” “मुझे इस मृत्यु की देह से कौन छुड़ाएगा?” (7:24)।
आशावादी: क्षमता के साथ इच्छा
रोमियों 8 में, हम एक तीसरे पात्र से मिलते हैं जिसे हम “आशावादी” कहेंगे। असहाय की तरह, आशावादी भी ऐसे तरीके से जीना चाहता है जो परमेश्वर को पसंद आए। उनके बीच का बड़ा अंतर क्षमता के क्षेत्र में है।
पौलुस आशावादी से कहता है “यदि तुम शरीर के अनुसार दिन काटोगे तो मरोगे” (रोमियों 8:13), और यही वह कार्य है जो असहाय नहीं कर सका। परन्तु आशावादी की स्थिति बिल्कुल अलग है। उसके जीवन में पाप के विरुद्ध लड़ने की इच्छा है, और वह विजयी होने की क्षमता रखता है क्योंकि परमेश्वर का आत्मा उसमें वास करता है।
असहाय और आशावादी दोनों को एक समान संघर्ष का सामना करना पड़ता है। वे समान प्रलोभनों का खिंचाव महसूस करते हैं। उनके बीच का अंतर लड़ाई में नहीं बल्कि परिणाम में है। असहाय को अवश्यंभावी हार का सामना करना पड़ेगा; आशावादी को अंतिम विजय का आनंद मिलेगा।
अत्यधिक बल का उचित प्रयोग
जब 7 दिसंबर, 1941 को पर्ल हार्बर अमेरिकी नौसैनिक अड्डे पर हमला हुआ, तो इंगलैंड के प्रधानमंत्री – विंस्टन चर्चिल चेकर्स में थे, जो ब्रिटिश प्रधानमंत्री का राष्ट्रीय आश्रय स्थल था। समाचार सुनकर उन्होंने राष्ट्रपति रूजवेल्ट को फोन किया, जिन्होंने कहा, “अब हम सभी एक ही नाव पर हैं।”
चर्चिल ने उस रात बिस्तर पर जाते समय अपने विचार लिखे। “कोई भी अमेरिकी मेरे बारे में गलत नहीं सोचेगा अगर मैं यह घोषणा करूँ कि संयुक्त राज्य अमेरिका का हमारे साथ होना मेरे लिए सबसे बड़ी खुशी थी… आखिरकार हम जीत गए थे। हाँ, डनकर्क के बाद; फ्रांस के पतन के बाद… सत्रह महीने की एकाकी लड़ाई के बाद और उन्नीस महीने तक भयंकर तनाव में रहकर अपनी जिम्मेदारी निभाने के बाद। हम युद्ध जीत चुके थे। इंग्लैंड जीवित रहेगा; ब्रिटेन जीवित रहेगा…
युद्ध कब तक चलेगा या इसका अंत किस तरह होगा, यह कोई नहीं बता सकता था, न ही मुझे इस समय इसकी परवाह थी… बाकी सब तो बस अत्यधिक बल का उचित प्रयोग था… आगे कई विपत्तियाँ, अथाह लागत और क्लेश आने वाले थे, परन्तु अंत के बारे में कोई संदेह नहीं था… मैं बिस्तर पर गया और बचाए गए और आभारी लोगों की नींद सो गया।1”
युद्ध अगले चार वर्षों तक जारी रहेगा। यह एक कड़ा संघर्ष बना रहा, परन्तु दिसंबर 1941 में भी, चर्चिल कह सकते थे, “हमने युद्ध जीत लिया है।” नतीजा निश्चित था। चर्चिल असहाय थे। परन्तु अब वे आशावादी हो गए थे। अंतर एक “अत्यधिक बल” की संलिप्तता में निहित था।
असहाय के साथ समस्या यह है कि वह अपनी क्षमता की सीमा तक ही सीमित है। इसीलिए उसे मसीही जीवन असंभव लगता है। रोमियों 7 में, असहाय मसीह या आत्मा के बारे में कुछ नहीं कहता है। वह केवल अपने बारे में और अपनी सीमित क्षमताओं के बारे में बात करता है, जो परमेश्वर के नियम को पूरा करने के लिए अपर्याप्त हैं।
परन्तु जब आप मसीह के हो जाते हैं, तो पवित्र आत्मा आप में वास करता है। आप असहाय नहीं हैं, इसलिए ऐसे बात न करें जैसे कि आप असहाय हों। परमेश्वर ने आपको मसीह में एक बिल्कुल नई स्थिति में रखा है। आपको पहले जैसे ही युद्धों का सामना करना पड़ेगा, परन्तु परिणाम अलग होंगे।
अपनी स्थिति पहचानें
शायद आपको लगे कि कोई पाप आपके लिए बहुत ज़्यादा गंभीर है। आप इससे लड़ते-लड़ते थक गए हैं, और आप हारा हुआ महसूस करते हैं।
पादरी कहते हैं, मेरी अक्सर कई ऐसे व्यक्तियों से बातचीत होती है जो मुझसे किसी ऐसे प्रलोभन के बारे में बात करने आते है जो उनके लिए बहुत भारी होते है। वे कहते हैं, “यह मेरे लिए बहुत ज़्यादा है। मैं इससे उबरने में असमर्थ हूँ।”
इसलिए मैं उनसे कहता हूँ, “मैं तुम्हें मसीह के पास ले चलूंगा।”
फिर वे मुझसे कहते हैं, “अरे नहीं, पादरी जी, मैं कई सालों से ईसाई हूँ!”
“अच्छा, अब एक मिनट रुको। अगर तुम ईसाई हो, तो पवित्र आत्मा तुम्हारे अंदर रहता है। तुम कैसे कह सकते हो कि तुम असहाय हो?”
एक मसीही के लिए यह कहना कि “मैं असहाय हूँ” शैतान के झूठ को दोहराना है। अगर आप असहाय हैं, तो मसीह के पास आएँ। परन्तु अगर आप मसीह के पास आ गए हैं, तो पवित्र आत्मा आप में रहता है। इसलिए खुद को यह कहना बंद करें कि आप असहाय हैं।
हमारे तीन दोस्तों में से आप किससे सबसे अधिक संबंधित महसूस करते हैं: शत्रुतापूर्ण, असहाय, या आशावादी? इस प्रश्न का उत्तर देना महत्वपूर्ण है, ताकि आप सुन सकें कि परमेश्वर आपसे क्या कहना चाहते हैं।
शत्रुओं के लिए परमेश्वर का वचन
यदि आप शत्रुतापूर्ण हैं, तो परमेश्वर आपको क्षमा प्रदान करते हैं। वे आपको अपने हथियार डालने के लिए आमंत्रित करते हैं, और वे आपको पश्चाताप करने के लिए कहते हैं (रोमियों 2:4)। पश्चाताप का अर्थ है परमेश्वर के प्रति अपना प्रतिरोध त्याग देना। यीशु मसीह संसार में आये और क्रूस पर चढ़ गये, ताकि जो लोग कभी परमेश्वर के शत्रु थे वे उनके मित्र बन सकें।
परमेश्वर ने हमारे प्रति अपना प्रेम तब भी दिखाया जब हम अभी भी उसके प्रति शत्रुतापूर्ण थे (5:8)। उन्होंने आपके सारे संघर्षों, सारे प्रतिरोधों और उनके विरुद्ध आपकी सारी लड़ाइयों के बावजूद आपसे प्रेम किया है। वे आपसे अब भी प्रेम करते हैं, यहाँ तक कि आपकी शत्रुता में भी। पश्चाताप में उनकी ओर मुड़ने से आपको कुछ भी खोने को नहीं है, बल्कि सब कुछ पाने को है।
असहायों के लिए परमेश्वर का वचन
परमेश्वर का संदेश असहाय लोगों के लिए बिल्कुल अलग है। असहाय को पश्चाताप करने के लिए कहने से उसे कोई मदद नहीं मिलेगी। वे पहले से ही वही करना चाहते है जो सही है। उनकी समस्या यह है कि उनके पास शक्ति नहीं है।
जब असहाय निराशा में चिल्लाता है, “मुझे इस मृत्यु के शरीर से कौन छुड़ाएगा?” परमेश्वर का उत्तर है “यीशु मसीह” (7:25)।
विश्वास के साथ मसीह के पास आइये। उनसे कहिए कि आप यह जीवन अकेले नहीं जी सकते है। उनसे कहिए कि आपको उनकी पवित्र आत्मा की शक्ति की आवश्यकता है, ताकि आपके पास नया जीवन जीने की इच्छा के साथ-साथ योग्यता भी हो। मांगो और तुम्हें मिलेगा। परमेश्वर आपको एक नया नाम देंगे। आप अब असहाय नहीं रहेंगे; आप आशावादी रहेंगे ।
आशावादी के लिए परमेश्वर का वचन
आशावादी के लिए परमेश्वर का वचन है कि आत्मा के सामर्थ्य से शरीर के कुकर्मों को मार डालें (8:13)। अपने अंदर बचे हुए पापों के खिलाफ़ जानबूझकर युद्ध शुरू करें। लड़ना सीखें और कभी भी यह न कहें कि आप असहाय हैं। परमेश्वर का आत्मा आपके भीतर है। मसीह ने आपको लड़ने और जीतने की स्थिति में रखा है।
क्या आप अत्यधिक सामर्थ्य का उचित प्रयोग कर रहे हैं? क्या आप उन विशिष्ट पापों की पहचान कर सकते हैं जिन पर आप अपने जीवन के इस मोड़ पर जानबूझकर आक्रमण कर रहे हैं? क्या आपने परिवर्तन के लिए कोई रणनीति बनाई है, यह जानते हुए कि इसे संभव बनाने के लिए आपको आत्मा की शक्ति दी गई है?
याद रखें कि शत्रु आपकी स्थिति के बारे में आपको भ्रमित करने का प्रयास करेगा। वह आशावादी को यह बताना पसंद करता है कि वह वास्तव में असहाय है। उसकी कई बड़ी सफलताएँ इसी तरह के प्रचार से आती हैं। इसलिए अपनी स्थिति पहचानिए और फिर परमेश्वर के निर्देशों का पालन कीजिए। यदि आप शत्रुतापूर्ण हैं, तो पश्चाताप करें—परमेश्वर का प्रेम आप तक पहुँचेगा। यदि आप असहाय हैं, तो आइये—मसीह आपको छुड़ाएँगे। यदि आप आशावादी हैं, तो संघर्ष करें—पवित्र आत्मा आपके भीतर है।
आपके पास जो सामर्थ्य है वह पूरी तरह से आपकी आध्यात्मिक स्थिति पर निर्भर करती है। मसीह के बिना,मसीही जीवन आपके सामर्थ्य से परे है। परन्तु जब आप विश्वास के साथ मसीह के पास आते हैं, तो वे आपको अपनी आत्मा देते हैं। और यह आपको पूरी तरह से अलग स्थिति में डाल देता है।
आपको कई संघर्षों का सामना करना पड़ेगा, और आपको कई हार के साथ-साथ जीत भी मिलेगी। परन्तु आप इस युद्ध में अकेले नहीं हैं। परमेश्वर का आत्मा आपके भीतर है, और वह मसीही जीवन को संभव बनाता है। मसीही जीवन का अर्थ है अत्यधिक सामर्थ्य का उचित प्रयोग। जब परमेश्वर का आत्मा आप में वास करता है तो कभी भी यह मत कहिए कि आप असहाय हैं।
टिप्पणियाँ:
1. विंस्टन चर्चिल, द्वितीय विश्व युद्ध (मैरिनर, 1986)। 3.475-477.
परमेश्वर के वचन के साथ आगे जुड़ने के लिए इन प्रश्नों का उपयोग करें। उन पर किसी अन्य व्यक्ति के साथ चर्चा करें या उन्हें व्यक्तिगत प्रतिबिंब प्रश्नों के रूप में उपयोग करें।
1. क्या आपके जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र है जिसमें आपने अक्सर हार महसूस करी हो?
2. आपके अनुसार पवित्र आत्मा उस क्षेत्र में आपकी सहायता करने में कैसे सक्षम हो सकता है?
3. आप अपने आप को अधिकतम किससे संबंधित महसूस कर सकते हैं – शत्रुतापूर्ण, असहाय या आशावादी? ऐसा कैसे?
4. अगर आपको पता चले कि एक “अत्यधिक सामर्थ्य” आपकी मदद कर रहा है तो इससे आपके दैनिक जीवन में क्या फर्क पड़ेगा?
5. क्या आपको लगता है कि आपमें ईसाई जीवन जीने की क्षमता है? क्यों या क्यों नहीं? क्या आपको इस जीवन की इच्छा है?